Monday, January 2, 2012

बस यही है अगर ज़िन्दगी......

बस यही है अगर ज़िन्दगी,
तो मौत का फिर क्या गम है?
रेत में घिसटते,

धूप में जलते,
अरमां हैं कई,

पर बेदम हैं...

खूब ये जीने की मशक्कत,
माथे पर शिकन,
हाथों पर शिकन,
बवजेह यूँ बहता,
रगों में रहता,
बह ही न जाये,
तो लहू कम है,
बस यही है अगर जिंदगी,
तो मौत का फिर
क्या गम है?

करते फिरें क्या,

साँसों के हिसाब,
सालों के हिसाब,

ख्वाबों के हिसाब,
कलम स्याही कागज़ पर,
जज्बातों के हिसाब,

वक़्त की मैली,
चादर पर बिखरे,
सलवटों में फंसे,
अरमानों के हिसाब,
खर्चे ये है कई,
और अब आँखें नम हैं,
बस यही है अगर ज़िन्दगी,
तो मौत का फिर क्या गम है..


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